नीति-नियम अनुशासन और संस्कारों के अनुसार आचरण करना, इनको धारण करना ही धर्म है
अर्थात आहार, निद्रा, भय और सहवास, मनुष्यों और पशुओं के लिये, एक ही समान स्वाभाविक हैं। मनुष्यों और पशुओं में कुछ भेद है तो केवल धर्म का अर्थात इन स्वाभाविक वृतियों को मर्यादित करने का। जिस मनुष्य में यह धर्म नहीं है वह पशु के समान ही है। और धर्म क्या है-नीति-नियम अनुशासन और संस्कारों के अनुसार आचरण करना, इनको धारण करना ही धर्म है।”दुर्लभ मानुषं जन्म, प्राथ्यते त्रिदशैरपि” अर्थात् इस दुर्लभ मानव देह को देवता लोग भी चाहते हैं क्योंकि इस देह से हम वास्तविक आनंद प्राप्त कर सकते हैं। चरित्र दो प्रकार का होता है, सच्चरित्र और दुश्चरित्र। इनमें सच्चरित्र को ही चरित्र कहते हैं।।अभय, अन्तःकरणकी शुद्धि, व्यवहारमें दूसरे के साथ ठगाई,कपट और झूठ आदि अवगुणोंको छोड़कर शुद्ध भावसे आचरण करना सच्चरित्रता है।व्यक्तित्व के निर्माण में सच्चरित्रताउपादान कारण है।
इस स्वभाव का आश्रय लेना और उसे निरंतर बनाये रखना ही योगक्षेम है जिसके लिये आत्मानुशासन परम आवश्यक है।संस्कार’ शब्द सम् उपसर्गपूर्वक ‘कृ’ धातु में घञ प्रत्यय लगाने से बनता है जिसका शाब्दिक अर्थ है परिष्कार, शुद्धता अथवा पवित्रता । इस प्रकार हिन्दू व्यवस्था में संस्कारों का विधान व्यक्ति के शरीर को परिष्कृत अथवा पवित्र बनाने के उद्देश्य से किया गया ताकि वह वैयक्तिक एवं सामाजिक विकास के लिये उपयुक्त बन सके।
ऐसी मान्यता है कि मनुष्य जन्मना असंस्कृत होता है किन्तु संस्कारों के माध्यम से वह सुसंस्कृत हो जाता है ।
इनसे उसमें अन्तर्निहित शक्तियों का पूर्ण विकास हो पाता है तथा वह अपने लक्ष्य की प्राप्ति कर लेता है । संस्कार व्यक्ति के जीवन में आने वाली बाधाओं का भी निवारण करते तथा उसकी प्रगति के मार्ग को निष्कण्टक बनाते हैं । इसके माध्यम से मनुष्य आध्यात्मिक विकास भी करता है ।
अस्तु चरित्र एवं व्यक्तित्व के निर्माण में नीति-नियम अनुशासन और संस्कारों का अतिशय महत्व है।।
U all should know n try to imbibe it.
द्वारा
आदरणीय श्री कृष्ण चंद्र तिवारी