‘सर्वोच्च बलिदान’ अपने आप में कितना विस्तृत अर्थ समेटे हुए हैं
जीवन के बलिदान की क्या व्याख्या हो सकती है ? वीर सैनिकों में कहां से आता है ऐसा अदम्य साहस जहां मातृभूमि की रक्षा और तिरंगे की आन के लिए मृत्यु पथ पर उनके कदम सहर्ष बढ़ जाते हैं…जिंदा रहने की इच्छा के आगे दुश्मन को मार कर मृत्यु को गले लगाने की इच्छा बलवती हो जाती है…
उनके कंठ से एक ही बात निकलती है
देशभक्ति की ऐसी तीव्र लौ जिसके ताप में तप कर हमारा देश कुंदन की तरह दीप्तिमान हो जाता है हवाओं में उनके शौर्य के तराने गुंजायमान हो जाते हैं । हम उनके ऋण से कभी उऋण तो नही हो सकते पर उनको याद करके उनको नमन करके अपना कर्तव्य निभा सकते हैं और आगे आने वाली पीढ़ियों में देश के प्रति राष्ट्र के प्रति वही प्रेम और उस को सुरक्षित रखने का संकल्प रोपित कर सकते हैं ।
527 वीरो के खून से भारत की आजादी का समझौता हुआ ,कितने घर आंगन का चिराग बुझ गया ,कितने माँ ने अपने बेटे जिनपे कभी आँच ना आने दी होगी उन्होंने अपने बेटों को अपने सीने से आखिरी बार लगा कर रोई होंगी। कितने बच्चों ने अपने हीरो जैसे पिता को खोया होगा,कितने हाथों की चूड़ियां टूटी होंगी।
और इधर हम सब क्या चाहते हैं ? क्या करते हैं ?… हमारी शिकायतों के पुलिंदे चाहे वह खुद से हो परिवार से हों, समाज से हों, देश से हों, लगातार दिन व दिन बढ़ते ही जाते हैं, नफा नुकसान का हिसाब खत्म होने पर ही नहीं आता… बस अपने ही स्वार्थ अपने ही परिवार अपनी ही खुशियों अपनी ही ज़रूरतों की उधेड़बुन में अपनी जिंदगी गुजार देते हैं.. सोच कर देखिएगा ….
गीता के इसी श्लोक को प्रेरणा मानकर भारत के शूरवीरों ने कारगिल युद्ध में दुश्मन को पाँव पीछे खींचने के लिए मजबूर कर दिया था।
26 जुलाई 1999 के दिन भारतीय सेना ने कारगिल युद्ध के दौरान चलाए गए ‘ऑपरेशन विजय’ को सफलतापूर्वक अंजाम देकर भारत भूमि को घुसपैठियों के चंगुल से मुक्त कराया था। इसी की याद में ‘26 जुलाई’ अब हर वर्ष कारगिल दिवस के रूप में मनाया जाता है।
यह दिन है उन शहीदों को याद कर अपने श्रद्धा-सुमन अर्पण करने का, जो हँसते-हँसते मातृभूमि की रक्षा करते हुए वीरगति को प्राप्त हुए। यह दिन समर्पित है उन्हें, जिन्होंने अपना आज हमारे कल के लिए बलिदान कर दिया।
कारगिल युद्ध जो कारगिल संघर्ष के नाम से भी जाना जाता है, भारत और पाकिस्तान के बीच 1999 में मई के महीने में कश्मीर के कारगिल जिले से प्रारंभ हुआ था।
इस युद्ध का कारण था बड़ी संख्या में पाकिस्तानी सैनिकों व पाक समर्थित आतंकवादियों का लाइन ऑफ कंट्रोल यानी भारत-पाकिस्तान की वास्तविक नियंत्रण रेखा के भीतर प्रवेश कर कई महत्वपूर्ण पहाड़ी चोटियों पर कब्जा कर लेह-लद्दाख को भारत से जोड़ने वाली सड़क का नियंत्रण हासिल कर सियाचिन-ग्लेशियर पर भारत की स्थिति को कमजोर कर हमारी राष्ट्रीय अस्मिता के लिए खतरा पैदा करना।
इन रणबाँकुरों ने भी अपने परिजनों से वापस लौटकर आने का वादा किया था, जो उन्होंने निभाया भी, मगर उनके आने का अन्दाज निराला था। वे लौटे, मगर लकड़ी के ताबूत में। उसी तिरंगे मे लिपटे हुए, जिसकी रक्षा की सौगन्ध उन्होंने उठाई थी। जिस राष्ट्रध्वज के आगे कभी उनका माथा सम्मान से झुका होता था, वही तिरंगा मातृभूमि के इन बलिदानी जाँबाजों से लिपटकर उनकी गौरव गाथा का बखान कर रहा था।
मैं आज न केवल उन शूरवीरों और शहीदों को श्रद्धा सुमन अर्पित करते हुए वंदन करती हूं हूं बल्कि उनके माता पिता को भी अपने हृदय से नमन करती हूं जिन्होंने ऐसे वीर सपूतों को जन्म दिया और उनके ‘सर्वोच्च बलिदान’ पर उफ तक नहीं किया …धन्य है यह धरती।
राखी अग्रवाल