Theme Based Content – “चरित्र एवं व्यक्तित्व के निर्माण में नीति-नियम अनुशासन और संस्कारों का महत्व” – श्रेष्ठ संस्कार से ही श्रेष्ठ समाज का निर्माण होता है

Theme Based Content – “चरित्र एवं व्यक्तित्व के निर्माण में नीति-नियम अनुशासन और संस्कारों का महत्व” – श्रेष्ठ संस्कार से ही श्रेष्ठ समाज का निर्माण होता है

जीवन की उन्नति जो कि धर्म, अर्थ, काम व मोक्ष की प्राप्ति का साधन है, के लिए जो-जो शिक्षा, वेदाध्ययन आदि कार्य व क्रियाकलाप किये जाते हैं वह संस्कार कहलाते हैं। चार वेद ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद और अथर्ववेद ईश्वरीय ज्ञान हैं जो कि सृष्टि के आरम्भ में चार ऋषियों क्रमशः अग्नि, वायु, आदित्य व अंगिरा को वैदिक भाषा संस्कृत के ज्ञान सहित दिये गये थे। इन वेदों में ईश्वर ने वह ज्ञान मनुष्यों तक पहुंचाया जो आज 1,96,08,53,115 वर्ष बाद भी सुलभ है। यह वेदों का ज्ञान ही मनुष्य की समग्र उन्नति का आधार है। इस ज्ञान को माता-पिता और आचार्यों से पढ़कर मनुष्य की समग्र शारीरिक, बौद्धिक, आत्मिक और सामाजिक उन्नति होती है। उदाहरण के रूप में हम आदि पुरूष ब्रह्माजी, महर्षि मनु, पतजंलि, कपिल, कणाद, गौतम, व्यास, जैमिनी, राम, कृष्ण, चाणक्य, दयानन्द ,डॉ केशव बलिराम हेडगेवार,माधवराव सदाशिव राव गोलवरकर आदि ऐतिहासिक महापुरूषों को ले सकते हैं जिनकी शारीरिक, बौद्धिक और आत्मिक उन्नति का आधार वेद था।
वैदिक धर्म और संस्कृति में वेदों व वैदिक साहित्य का अध्ययन किए हुए युवकों व युवतियों का विवाह योग्य सन्तान और देश के श्रेष्ठ नागरिकों की उत्पत्ति के लिए होता है। संसार के शिक्षित और अशिक्षित सभी माता-पिता अपनी सन्तानों को स्वस्थ, दीर्घायु, बलवान, ईश्वरभक्त, धर्मात्मा, मातृ-पितृ-आचार्य-भक्त, विद्यावान, सदाचारी, तेजस्वी, यशस्वी, वर्चस्वी, सुखी, समृद्ध, दानी, देशभक्त आदि बनाना चाहते हैं। इसकी पूर्ति केवल वैदिक धर्म के ज्ञान व तदनुसार आचरण से ही सम्भव है। आज की स्कूली शिक्षा में वह सभी गुण एक साथ मिलना असम्भव है जिससे ऐसे योग्य देशभक्त नागरिक उत्पन्न हो सकें। केवल वैदिक शिक्षा से ही इन सब गुणों का एक व्यक्ति में होना सम्भव है जिसके लिए अनुकुल सामाजिक वातावरण भी आवश्यक है। वेदों के ज्ञान के कारण ही हमारे देश में ऋषि, महर्षि, योगी, सन्त आदि हुए हैं। अन्य देशों में यह सब गुण किसी एक व्यक्ति में पूरी सृष्टि के इतिहास में नहीं देखे गये हैं।
जिस प्रकार के सद्गुणों की अपेक्षा माता-पिता अपनी संतान से करते हैं, उनका बीजारोपण वास्तव में बाल्यकाल में होता है। श्रेष्ठ मानवीय मूल्यों एवं श्रेष्ठ आचरण से युक्त अच्छा साहित्य पढने का स्वभाव एवं अच्छी संगति से अच्छे एवं श्रेष्ठ संस्कारों का बीजारोपण संभव होता है। मनसंहिता में अभिवादन शीलता एवं बड़ों का सम्मान करने का प्रत्यक्ष प्रभाव बतलाया गया है। इससे मनुष्य को जीवन में आयु, यश, बुद्धि एवं ऐश्वर्य की प्राप्ति का साधन बतलाया गया है। देवता, ब्राह्मïण, गुरुजन एवं विद्वान का पूजन एवं सम्मान सात्विक तप कहलाता है।
‘‘प्रात:काल उठि के रघुनाथा। मात-पिता गुर नाविंह माथा।’’
भगवान श्री राम अपने बाल्यकाल में प्रात:काल उठ कर अपने माता-पिता और गुरु को प्रणाम करके अपनी दिनचर्या का प्रारंभ करते हैं।
हिरण्यकश्यप भगवान विष्णु जी से द्वेष रखता था परन्तु उसके पुत्र प्रह्लाद का लालन-पालन नारद ऋषि के आश्रम में हुआ, जिससे वह भगवान श्री हरि जी का परमभक्त बना। प्रह्लाद के पुत्र विरोचन और विरोचन पुत्र बलि के बारे में कौन नहीं जानता जिसके द्वार पर स्वयं भगवान नारायण वामन रूप में पधारे और उसका कल्याण किया। प्रह्लाद और बलि चाहे दैत्यकुल में उत्पन्न हुए लेकिन उन जैसी प्रभु भक्ति का उदाहरण अन्यत्र मिलना संभव नहीं।
रावण ब्रह्मा ऋषि पुलस्त्य का पौत्र था। पुलस्त्य ब्रह्मा जी के मानस पुत्र माने गए हैं परंतु बाल्यकाल में रावण को राक्षस कुल से उसकी माता कैकसी द्वारा ऐसे संस्कार दिए गए कि ब्राह्माण कुल में पैदा होकर भी रावण को दैत्यकुल से संबोधित किया जाने लगा।
कुरुवंश से कौरव व पांडव उत्पन्न हुए। कौरवों के नाश के लिए उत्तरदायी दुर्योधन के मन में बाल्यकाल से ही उसके मामा शकुनि ने पांडवों के प्रति इस प्रकार के ईष्र्या के बीज बोए वह जीवन भर अपनी इस विषैली मानसिकता से मुक्ति न पा सका। जिस प्रकार शुद्ध वायु के लिए वृक्षों के पास जाना आवश्यक है, ठीक उसी प्रकार मन, बुद्धि की शुद्धि के लिए धर्म ग्रंथों का स्वाध्याय आवश्यक है।
मार्कंडेय मुनि द्वारा सभी ज्ञानीजनों को प्रणाम करने के व्रत के कारण उन्होंने अपनी 16 वर्ष की अल्पायु को चिरंजीवी होने में परिवर्तित किया। बाल्यकाल का समय जीवन का सर्वाधिक उपयुक्त समय है, सद्गुण रूपी बीजों के अंकुरित होने का इस समय में सही मार्गदर्शन का प्राप्त होना आवश्यक है। भगवान श्री राम ने अपना बाल्यकाल गुरुकुल में महर्षि वशिष्ठ जी के आश्रम में तथा भगवान श्री कृष्ण ने सांदीपनी ऋषि के आश्रम में शिक्षा प्राप्त कर गुरु भक्ति एवं सेवा का अनुपम उदाहरण प्रस्तुत किया।
आज समाज में जो कुछ भी सुखद अथवा असुखद घटित होता है, इन सब में मानवीय संस्कारों का अत्यधिक महत्व है। आधुनिकता के इस युग में हम चाहे कितना भी आगे क्यों न निकल जाएं लेकिन परिवार, समाज तथा राष्ट्र को सदैव शुभ संस्कारों की आवश्यकता पड़ती रहेगी ताकि मानव से मानव के जुड़ाव की प्रक्रिया सतत् निरंतर चलती रहे। संतान की माता-पिता के प्रति, एक नागरिक के राष्ट्र के प्रति कर्तव्य परायणता, नि:स्वार्थ भाव से समाज के कल्याण हेतु तत्पर रहना, ये सब सत्य मानवीय समाज के निर्माण की प्रक्रिया में अत्यधिक महत्वपूर्ण अंग हैं। युक्त आहार, विहार, कर्मों में यथा योग्य चेष्टा तथा युक्त निंद्रा जीवन को योगपूर्ण बनाते हैं। मनुष्य का आचार, विचार, आहार, व्यवहार संतुलित बनाने में ज्ञान पथ प्रदर्शक होता है।
बाल्यावस्था में अबोध होने के कारण युवावस्था में व्यस्तता के कारण और बुढ़ापे में शारीरिक क्षमता के शिथिल होने के कारण हम जीवन भर इन सद्गुणों के ज्ञान से वंचित रह जाते हैं। वास्तव में श्रेष्ठ मानवीय आचरण का ज्ञान शिक्षा का अंग है। अगर बाल्यावस्था में इन सद्गुण रूपी संस्कारों से बच्चों को युक्त कर दिया जाए तो यह सब श्रेष्ठ मानवीय समाज का निर्माण करने हेतु अवश्य ही सामथ्र्यवान बनेंगे।
किसी भी समाज को चिरस्थायी प्रगत और उन्नत बनाने के लिए कोई न कोई व्यवस्था देनी ही पडती है और संसार के किसी भी मानवीय समाज में इस विषय पर भारत से ज्यादा चिंतन नहीं हुआ है। कोई भी समाज तभी महान बनता है जब उसके अवयव श्रेष्ठ हों। उन घटकों को श्रेष्ठ बनाने के लिए यह अत्यावश्यक है कि उनमें
दया, करुणा, आर्जव, मार्दव, सरलता, शील, प्रतिभा, न्याय, ज्ञान, परोपकार, सहिष्णुता, प्रीति, रचनाधर्मिता, सहकार, प्रकृति प्रेम, राष्ट्रप्रेम एवं अपने महापुरुषों आदि तत्वों के प्रति अगाध श्रद्धा हो।
मनुष्य में इन्हीं सारे सद्गुणों के आधार पर जो समाज बनता है वह चिरस्थायी होता है। यह एक महत्वपूर्ण चिन्तनीय विषय हजारों साल पहले से मानव के सम्मुख था कि आखिर किस विधि से सारे उत्तम गुणों का आह्वान एक-एक व्यक्ति में किया जाए कि यह समाज राष्ट्र और विश्व महान बन सके।भारतीय ऋषियों ने इस पर गहन चिन्तन मनन किया। आयुर्वेद के वन्दनीय पुरुष आचार्य चरक कहते हैं कि-
संस्कारोहि गुणान्तरा धानमुच्चते
अर्थात् यह असर अलग है। मनुष्य के दुर्गुणों को निकाल कर उसमें सद्गुण आरोपित करने की प्रक्रिया का नाम संस्कार है। वास्तव में संस्कार मानव जीवन को परिष्कृत करने वाली एक आध्यात्मिक विधा है। संस्कारों से सम्पन्न होने वाला मानव सुसंस्कृत, चरित्रवान, सदाचारी और प्रभुपरायण हो सकता है अन्यथा कुसंस्कार जन्य चारित्रिक पतन ही मनुष्य और समाज को विनाश की ओर ले जाता है। वही संस्कार युक्त होने पर सबका लौकिक और पारलौकिक अभ्युदय सहज सिद्ध हो जाता है। संस्कार सदाचरण और शाश्त्रीय आचार के घटक होते हैं। संस्कार, सद्विचार और सदाचार के नियामक होते हैं। इन्हीं तीनों की सुसम्पéता से मानव जीवन को अभिष्ट लक्ष्य की प्राप्ति होती है। भारतीय संस्कृति में संस्कारों का महत्व सर्वोपरि माना गया है, इसी कारण गर्भाधान से मृत्यु पर्यन्त मनुष्य पर सांस्कारिक प्रयोग चलते ही रहते हैं। इसलिए भारतीय संस्कृति सदाचार से अनुप्रमाणित रही है।
प्राकृतिक पदार्थ भी जब बिना सुसंस्कृत किए प्रयोग के योग्य नहीं बन पाते हैं तो मानव के लिए संस्कार कितना आवश्यक है यह समझ लेना चाहिए। जब तक मानव बीज रूप में है तभी से उसके दोषों का अहरण नहीं कर लिया जाता तब तक वह व्यक्ति आर्य नहीं बन पाता है और वह मानव जीवन से राष्ट्रीय जीवन में कहीं भी हव्य कव्य देने का अधिकारी भी नहीं बन पाता। मानव जीवन को पवित्र चमत्कारपूर्ण एवं उत्कृष्ट बनाने के लिए संस्कार अत्यावश्यक है। गहरे अर्थों में संस्कार धर्म और नीति समवेत हो जाती है। इसीलिए संस्कार की ठीक-ठाक परिभाषा कर पाना सम्भव ही नहीं है। संस्कार शब्दातीत हो जाते हैं क्योंकि वहां व्यक्ति क्रिया और परिणाम में केवल परिणाम ही बच जाता है। व्यक्ति के अहंकारों का क्रिया में लोप हो जाता है। एक तरह से व्यक्ति मिट ही जाता है तो जब व्यक्ति मिट ही जाता है तो परिभाषा कौन करेगा अब वह व्यक्ति समष्टि बन जाता है। वह निज के सुख-दुख हानि लाभ जीवन मरण, यश अपयश के बारे में काम चलाऊ से ज्यादा विचार ही नहीं करता। उसका तो आनन्द परहित परोपकार और समाज एवं सृष्टि को संवारने में ही निहित हो जाता है और संस्कारों की उपर्युक्त क्रिया ही चरित्र, सदाचार, शील, संयम, नियम, ईश्वर प्रणिधान स्वाध्याय, तप, तितिक्षा, उपरति इत्यादि के रूप में फलित होते हैं।
संस्कारों से अनुप्राणित व्यक्ति की सत्य की खोज एक सनातन यात्रा बन जाती है। और वह प्राप्त सत्य केवल एक भीतरी आनन्द देता है जिसकी ऊर्जा से आपलावित होकर व्यक्ति समाज और मानवता के लिए अपना सर्वस्व न्यौछावर कर देता है। उस सत्य की व्याख्या नहीं की जा सकती। उसे केवल अनुभव किया जा सकता है क्योंकि वो शब्द छोटे पड़ जाते और जो अनुभूति है वो इतनी विराट है कि अनादि, अनन्त।
यह संस्कार वही ज्ञान है, इस त्रिभंग से मुक्त होना ही संस्कार का परिणाम है। ऊपरी तौर पर भी हिन्दू संस्कृति ने इसकी बड़ी सुन्दर व्यवस्था रखी ही है। कुम्भ मेले में अमृत रसपान हेतु लाखों-लाखों लोग लाखों वर्षों से एकत्र होते रहते हैं। वहां भी वे दृश्य गंगा और जमुना में स्नान करते हैं, लेकिन अनुभूति तो अदृश्य सरस्वती की होती है। यह सरस्वती ही ज्ञान है यही संस्कार का सुफल है यह सरस्वती दृश्यमान नहीं है। अनुभूति जन्य है इस सरस्वती को व्याख्यायित करना संभव ही नहीं है
प्रेमैव कार्यम् प्रेमैव कार्यम्।।
यही संस्कार है। यूं तो प्रत्येक समाज अपने घटकों को सुसंस्कारित करने का प्रयास करता है। उसके लिए आदर्श भी रखता है। संस्कार की परिधि इतनी व्यापक है कि उसमें श्वास प्रश्वास से लेकर प्रत्येक कर्म समाविष्ट है।
ब्राह्सस्कारसंसकृतः ऋषीणां समानतां सामान्यतां
समानलोकतां सामयोज्यतां गच्छति।
दैवेनोरेण संस्कारेणानुसंस्कृतो देवानां समानतां
समानलोकतां सायोज्यतां च गच्छति
(हारित संहिता)
संस्कारों से संस्कृत व्यक्ति ऋषियों के समान पूज्य तथा ऋषि तुल्य हो जाता है। वह ऋषि लोक में निवास करता है तथा ऋषियों के समान शरीर प्राप्त करता है और पुनः अग्निष्टोमादि दैवसंस्कारों से अनुसंस्कृत होकर वह देवताओं के समान पूज्य एवं देव तुल्य हो जाता है। वह देवलोक में निवास करता है और देवताओं के समान शरीर को प्राप्त करता है।
अव्याकृत किन्तु अनुभव गम्य संस्कारों के फूल जिसके हृदय में खिले हैं और जिसकी पवित्र सुगन्ध वातावरण को मुग्धकारी बना देती है उन ऋषियों ने लोक कल्याण हेतु संस्कारों के लक्षण कहने का प्रयास किया है।
(महाभारत)
जिसके वैदिक संस्कार विधिवत् सम्पन्न हुए हैं, जो नियमपूर्वक रहकर मन औैर इन्द्रियों पर विजय पा चुका है, उस विज्ञ पुरुष को इहलोक और परलोक में कहीं भी सिद्धि प्राप्त होते देर नहीं लगती।
अंगिरा ऋषि कहते हैं कि-
चित्रकर्म यथाडेनेकैरंगैसन्मील्यते शनैः।
ब्राह्ण्यमपि तद्वास्थात्संस्कारैर्विधिपूर्व कैः।।
जिसके प्रकार किसी चित्र में विविध रंगों के योग से धीरे-धीरे निखार लाया जाता है, उसी प्रकार विधिपूर्वक संस्कारों के सम्पादन से ब्रह्ण्यता प्राप्त होती है।
मानवीय संस्कारों के महत्वपूर्ण तत्वों की ओर इंगित करते हुए भगवान वेद व्यास कहते हैं-
न चात्मानं प्रशंसेद्वा परनिन्दां च वर्जयेत्।
वेदनिन्दां देवनिन्दां प्रयन विवर्जयेत्।।
(पुराण)
अपनी प्रशंसा न करे तथा दूसरे की निन्दा का त्याग कर दे। वेदनिन्दा और देवनिन्दा का यत्नपूर्वक त्याग करे।
संस्कारों से ही आचरण पवित्र होते हैं।
आचारः परमो धर्मः सर्वेषामिति निश्चयः
हीनाचारी पवित्रात्मा प्रेत्य चेह विनश्यति।।
सभी शास्त्रों का यह निश्चित मत है कि आचार ही सर्वश्रेष्ठ धर्म है। आचारहीन पुरुष यदि पवित्रात्मा भी हो तो उसका परलोक और इहलोक दोनों नष्ट हो जाते हैं।
‘‘संसार भर में जो भी सर्वोत्तम बातें जानी या कही गयी हैं उनसे अपने आप को परिचित कराना संस्कृति है।’’
‘‘संस्कृति शारीरिक या मानसिक शक्तियों का प्रशिक्षण, दृढी़करण या विकास अथवा उससे उत्पनन अवस्था है।’’ यह ‘‘मन, आचार अथवा रूचियों की परिष्कृति या शुद्धि’’ है। यह सभ्यता का भीतर से प्रकाशित हो उठना है। इस अर्थ में संस्कृति कुछ ऐसी चीज का नाम हो जाता है, जो बुनियादी और अन्तर्राष्ट्रीय है। फिर, संस्कृति के कुछ राष्ट्रीय पहलू भी होते हैं। औैर इसमें संदेह नहीं कि अनेक राष्ट्रों ने अपना कुछ विशिष्ट व्यक्तित्व तथा अपने भीतर कुछ खास ढंग के मौलिक गुण विकसित कर लिये हैं।
संस्कारों के प्रयोजन पर विचार करने से यह स्पष्ट होता है कि यही एक माध्यम है जब हम परम सत्य की अनुभूति को कल्याणकारी और लोकरंजक बना सकते हैं।
उपायः सोडवताराय
(माण्डूक्यकारीका)
सत्यं शिवं सुन्दरम् में मनोयोग ही सृष्टि का प्रयोजन है और इस परम प्राप्ति का एकमेव कारण संस्कार है।

द्वारा - डॉ. सौरभ मालवीय
उत्तरप्रदेश के देवरिया जनपद के पटनेजी गाँव में जन्मे सौरभ मालवीय बचपन से ही सामाजिक परिवर्तन और राष्ट्र-निर्माण की तीव्र आकांक्षा के चलते सामाजिक संगठनों से जुड़े हुए है। जगतगुरु शंकराचार्य एवं डा. हेडगेवार की सांस्कृतिक चेतना और आचार्य चाणक्य की राजनीतिक दृष्टि से प्रभावित डा. मालवीय का सुस्पष्ट वैचारिक धरातल है।

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