बंगाल प्रान्त में उन दिनों “ब्रह्म समाज” सम्प्रदाय का प्रचार दिनों-दिन बढ़ रहा था, जिसके संस्थापक राजा राममोहन राय थे। नरेन्द्र पहले ब्रह्म समाज में शामिल हुए। थोड़े ही दिनों के पश्चात उन्होंने जान लिया कि इस धर्म में कोई सार नहीं; केवल ऊपरी चमत्कार, आडम्बर मात्र है। अस्तु, अब वे ईसाई व मुहम्मदी तत्वों की ओर मुड़े; धर्मग्रन्थों का अनुशीलन प्रारम्भ किया, पर उनसे भी शान्ति प्राप्त न हुई।
सनातन धर्म पर उन्हें श्रद्धा न थी।
वे लकीर के फ़क़ीर न बनना चाहते थे तथापि अन्वेषण-दृष्टि से एक बार फिर सनातन धर्म के वेदान्त, उपनिषद, धर्म-शास्त्र का गहरी दृष्टि से अध्ययन प्रारम्भ किया।
संसार में इसी धर्म के प्रचार की आवश्यकता है। यही एक धर्म सदैव निर्बाध रूप से सर्वजीव हितकारी हो सकता है। नरेंद्र अब तक जिस भ्रम-जाल में फँसकर छटपटा रहे थे, हिन्दू शास्त्रों से वह जाल छिन्न-भिन्न हो गया।
अपना कर्त्तव्य पथ उन्हें दृष्टि गोचर होने लगा। सद्गुरु कृपा की उत्कट अभिलाषा उत्पन्न हुई।
इधर-उधर साधु-संग करना प्रारम्भ किया। कोई झूठ ही कह दे कि अमुक स्थान पर एक योगी महात्मा आए हुए हैं तो नरेन्द्र सब कार्य छोड़कर तत्काल ही वहाँ पहुँचते थे। कोई साधु-महात्मा मिलता तो उस से भाँति-भाँति के प्रश्न करके उसे घबराहट में डाल देते थे। इससे लोग उन्हें दुराग्रही, कपटी आदि नाना उपाधियों से विभूषित करने लगे थे। कोई-कोई महात्मा तो हठात् उन को परास्त करने की इच्छा से जाते और मुँह की खाकर लौट आते थे। परन्तु नरेन्द्र की तो गुरु-दर्शन की प्रबल अभिलाषा थी। गुरु मिलता कैसे न?
उन्हीं दिनों एक पहुँचे हुए महात्मा श्री स्वामी रामकृष्ण परमहंस कलकत्ता के समीप दक्षिणेश्वर नामक स्थान में रहते थे। वे स्वतः तो सदैव ब्रह्म-लीन रहते ही थे परन्तु जिज्ञासु को भी अपनी अमृतमयी वाणी से तृप्त कर देते थे। नरेंद्र के एक सम्बन्धी एक दिन नरेन्द्र को वहाँ चलने के लिए बाध्य करने लगे। “आप जाकर दर्शन करें। मेरे चलने से उनके प्रति आपकी श्रद्धा कम हो जायगी”, कहकर नरेन्द्र ने उन्हें टालना चाहा पर अन्त में उनके विशेषाग्रह से जाना ही निश्चय किया।
कुछ बातचीत होने के अनन्तर,
कभी-कभी बड़ी-बड़ी सभाओं तक में नरेन्द्र, गुरु-स्मरण करते हुए उनके चरण में लीन हो जाते थे। एकबार जन समुदाय में गुरु के प्रति उनके उद्गार थे,
मानवीय मुल्यों के पोषक संत रामकृष्ण परमहंस कोलकता के निकट दक्षिणेश्वर काली मंदिर के पुजारी थे। अपनी कठोर साधना और भक्ति के ज्ञान से इस निष्कर्ष पर पहुँचे थे कि संसार के सभी धर्म सच्चे हैं उनमें कोई भिन्नता नहीं है। वे मोह-माया से विरक्त हिन्दु संत थे फिर भी सभी धर्मों की समानता का उपदेश देते थे।
नरेन्द्रनाथ लगातार रामकृष्ण जी की और आकृष्ट होते गये। उनको आभास होने लगा था कि उनके अंदर कुछ अद्भुत घटित हो रहा है।वह स्वामी जी के सानिध्य में आकर उनका शिष्य बन कर सन्यास लेने का मन बना चुके थे।
नरेंद्र के सांसारिक बंधनों से मुक्त होने में बाधक थीं उनकी पुत्र-वत्सला माता। मातृ-भक्ति का उद्रेक संन्यास ग्रहण कर उन्हें अधिक दुःखी न करना चाहता था। परमहंस स्वामी रामकृष्ण महाराज के निर्वाण प्राप्त करने पर, माता से किसी प्रकार आज्ञा ले नरेन्द्र ने संन्यास ले ही लिया और संसार में गुरु-मत प्रचार तथा सनातन हिंदू धर्म को पुनर्जागृत करने का प्रण किया। अब से वे स्वामी विवेकानंद नाम से नए रूप में आविर्भूत हुए।
क्रमशः